कल गुलज़ार के नज्मों की ऐक किताब लिए बैठा था | पन्ने पलट ही रहा था की इस Black and White नज़्म से मुलाक़ात हुई | मनो मेरी ही काहानी लिए कब से उन पन्नो में जा छुपा बैठा है | गुलज़ार की नज्में बहुत रंगबिरंगी होती हैं, पर इसमें मुझे ऐक सुना सा चेहरा नज़र आया | दुनिया से लड़ते लड़ते छिल गया था, थक गया था |
कितनी गिरहें खोली हैं मैनेकितनी गिरहें अब बाकी हैंपांव मे पायल, बाहों में कंगन, गले मे हन्सली,कमरबन्द, छल्ले और बिछुएनाक कान छिदवाये गयेऔर ज़ेवर ज़ेवर कहते कहतेरीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गयीउफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...अब छिलने लगे हैं हाथ पांव,और कितनी खराशें उभरी हैंकितनी गिरहें खोली हैं मैनेकितनी रस्सियां उतरी हैंकितनी गिरहें खोली हैं मैनेकितनी गिरहें अब बाकी हैंअंग अंग मेरा रूप रंगमेरे नक़्श नैन, मेरे भोले बैनमेरी आवाज़ मे कोयल की तारीफ़ हुईमेरी ज़ुल्फ़ शाम, मेरी ज़ुल्फ़ रातज़ुल्फ़ों में घटा, मेरे लब गुलाबआँखें शराबगज़लें और नज़्में कहते कहतेमैं हुस्न और इश्क़ के अफ़सानों में जकड़ी गयीउफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...मैं पूछूं ज़रा, मैं पूछूं ज़राआँखों में शराब दिखी सबको, आकाश नहीं देखा कोईसावन भादौ तो दिखे मगर, क्या दर्द नहीं देखा कोईक्या दर्द नहीं देखा कोईफ़न की झीनी सी चादर मेंबुत छीले गये उरियानि केतागा तागा करके पोशाक उतारी गयीमेरे जिस्म पे फ़न की मश्क़ हुईऔर आर्ट-कला कहते कहतेसंगमरमर मे जकड़ी गयीउफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...बतलाए कोई, बतलाए कोईकितनी गिरहें खोली हैं मैनेकितनी गिरहें अब बाकी हैं
कितनी सच बात कही है गुलज़ार ने!
खुली हुई है कुछ गिरहें मेरी भी
टूटे हुए हैं धागे कई
ज़ेवर बिखरे पड़े हैं मेज़ पर
और ऐक दिल रखा हुआ है
उस पुरानी सी अलमारी में...
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