गेहरा कुहंसा था या घने बदल
पता नहीं क्या था
वक़्त बढ़ भी तोह नहीं रहा था
घड़ी की सुइयां गुमराह कर रही थीं
या मेरी सोच अपना रह खो चुकी थी
कपड़े भीगे हुए पर आसमां साफ़ था
ओस रूह को छु रही थी
पता नहीं कहाँ था उस पल मैं
ख्वाबों में या जगा हुआ
धरती पे या परे
उस धुंद में बस नज़र आ रही थी मेरी परछाई
किसी की तलाश थी उसे
एक लौव की शायद
सूरज भी तो नहीं था आसमां में
शायद ओस की बूंदों ने उसे भी बुझा दिया हो
शायद रात का वक़्त था
शायद घड़ी की सुईयां गुमराह कर रही थीं |
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