Wednesday, November 30, 2011

ख़ामोशी का वो भयानक चेहरा





नहीं कर पाई कुछ
वह भीड़ बस खड़ी रही
एक टक देखती रही
पर नहीं कर पाई कुछ

एक आवाज़ उठी थी कहीं से
पर डर के धार ने चीर के रख दिया उसे
उठे थे कुछ सर
कई हाथों ने हल्ला भी बोलना चाहा
काट के गिरा दिए गए ज़मीन पर

कोई नहीं आया बचाने उन्हें 
किसी ने नहीं बढ़ाये अपने कदम
मनो कोई तमाशा देख रहे हों
खून टपक रहा था कटे हुए गर्दनो से
मनो की लोग सिक्कों की बौछार कर रहे हों 

तमाशा हुआ ख़त्म 
घर चली गयी भीड़
चैन की नींद सोने को 
कल ऐक बार फिर सजेगा मंच 
कल ऐक बार फिर से सिक्के बरसेंगे 

Last year I had tried to render a silent conversation in my words.

ख़ामोश रहकर भी वह ख़ुशी बाँट रहे हैं
और हम...
बात करते हैं तो
लोग रोते हैं | लोग मरते हैं |

And this year, the silence has come back to haunt me, donning a different mask. 
Of indifference. Of ignorance. Of fear.

A silence that watches a murder and yet be calm about it. 
A silence that pierces the soul. Murders it. Buries it deep.

Now I yearn for a voice amidst this deafening silence.

ख़ामोशी से डर लगता है अब |